जिसके पंख स्वयम् हैं विकसित, द्वन्द्व- हीन नित अविकारी।
किस अवराधन का फल पायें, पाखी की आँखें भारी? 1॥
मुक्त व्योम, अभिगमन अपरिमित,
उड़ता नित्य सहज ठहराव।
अविकल प्यास लिए आवाहन,
क्या निष्काम सनातन चाव?
क्या आश्चर्य? विरह में व्याकुल, दिखे सनातन अभिसारी॥2॥
मदिरा का प्रस्ताव विमोहक,
यह कैसा उर पर व्याघात्?
कुछ बूँदेँ, निर्दोष दया से ,
बरसीँ, बन बन्धन आपात्।
दिव्य द्रव्य उपचार विफल, है लुप्त चेतना सारी॥3॥
चेतन पर भारी बन बिकसे?
कौन शक्ति? कैसा अभियोग?
मूर्च्छित उपचारी बन आया,
किया पुन: इक नया प्रयोग।
निद्रा गहरी, भाव विकारी, नित नव विस्मृति अनुहारी॥4॥
सदा सुरक्षित; रुग्ण- आवरण,
चिन्मय- पत, आरोपित मोह।
अकट सर्ग का आवाहन,
घटित करे संधृति-आरोह।
अवचिन्तन जब छूटे, देखे
अपनी स्थिर गति न्यारी॥5॥
श्लाघा कब व्यामोहित करती?
सिद्धि- विधा दे निश्चेतन।
'सत्यवीर' मृदु- सम्मोहन पर,
हुआ हठात् विमोहित मन।
पुष्ट पंख, मूर्च्छा आरोपित, पड़े स्यात् जल- कणिका री! 6॥
अशोक सिँह 'सत्यवीर'
{पुस्तक- 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

¤ सूली के संकेत कहाँ? ¤
ReplyDeleteमिली लाडली अपने पिय से, उसका अपना देश जहाँ।
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ?1॥
थी कितनी भयभीत! सुना था;
सूली ऊपर सेज पिया की।
यह कपोल कल्पित गाथा,
अब मरी, न है अब कुछ भी बाकी।
क्या अगाध विश्राम अनूठा!, नहीँ कल्पना तनिक वहाँ।
प्रीतम का अभिसार सहज है, शूली के संकेत कहाँ? 2॥
क्या अकाम मादकता व्यापी!
दिव्य- वक्ष पर उतरा पावस।
सदा जागरण- विलसित घट पर,
नित संक्रान्ति व नित्य अमावस।
शून्य- मेदिनी की अनुकम्पा, कैसी जीवन- मृत्यु वहाँ?
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ? 3॥
भौँरे से पीड़ित, लालीहत्,
पर, परदेश, कल्प- अवगुण्ठन।
खिला हठात् पुष्प, जब उर- सर,
मरा भ्रमर तत्क्षण, पाया धन।
है अवाक्, पर प्रकट उल्लसित, समझो! दिव्य-प्रवेश वहाँ।
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ? 4॥
'सत्यवीर' देखे का अनुभव;
श्रुत- पत के बिल्कुल विपरीत।
शास्त्र कहेँ क्या शून्य- दशा को!
परखो स्वयं समर्पित प्रीत।
साधन की चर्चा- प्रसंग, नि:सार- भार, पर श्रेय कहाँ?
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ?5॥
अशोक सिँह 'सत्यवीर' {पुस्तक: "पथ को मोड़ देख निज पिय को"} geet no-22
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ReplyDeleteमन की कौन थकान हरे?
ReplyDeleteAugust 11, 2015 at 12:27am
अपनी ही सुधि नहीँ किसी को,
नभ मेँ कहाँ उड़ान भरे?
मन की कौन थकान हरे? 1॥
नित-प्रति की आपाधापी मेँ,
अपनी उलझन के मंथन मेँ।
बीत रहे मधुमास अधूरे,
अनजाने मन के गुण्ठन मेँ।
अपनी पीड़ा से आकुल जब,
सुमनकुंज श्मशान करे।
मन की कौन थकान हरे॥2॥
बदली मेँ लुक-छिप जाते हैँ,
चन्दा भी औ सूरज भी।
पथराई आँखोँ से देखूँ,
छूट रहा अब धीरज भी।
अपने पथ का पथिक अचंभित,
पथ कैसे आसान करे?
मन की कौन थकान हरे? 3॥
विरलोँ की मति मेँ आता सच,
जीवन इक मधुशाला है।
तुम पीते-पीते थक जाओ,
भरा रहे पर प्याला है।
लेकिन जब ले प्रबल शिकायत,
जीवन का अपमान करे।
मन की कौन थकान हरे?4॥
>>> अशोक सिँह 'सत्यवीर'[ Thinker, Ecologist and Geographer]
{ गीत संग्रह - "पहरे तब मुस्काते हैँ" से, Page no. 6}
दिल मेँ जब उभरे सूनापन,
ReplyDeleteऔ फूलोँ मेँ काँटेँ छाऐँ।
एक झलक पाकर दिलवर की,
आँखोँ मेँ उभरी आशाऐँ॥1॥
खुदा आज जब खुद से आकर,
देता दरवाजे पर दस्तक़;
तब खुद की कमज़ोरी से डर,
रश्मोँ पर आरोप लगाऐँ॥2॥
ऊँच-नीच खुद मेँ रखकरके,
परेशान होते हैँ हरदम;
पर जब भेद खतम से लगते,
तब असमंजश ख़ुद मेँ पाऐँ॥3॥
समझदार कहते हैँ ख़ुद को,
पर न कहेँ खुलकर कुछ भी;
ज़ज़्बातोँ से ज़ज़्बातोँ को,
हलचल दे गायब हो जाऐँ॥4॥
शिकायतेँ ही भरीँ मगज़ मेँ,
जबकि बहुत प्यारे हैँ वो;
जिन घावोँ से खुद तड़पे हैँ,
आज वही मुझको दे जाऐँ॥5॥
'सत्यवीर' वे मीठे इतने,
कैसेँ करेँ शिकायत हम?
खुदा करे गम हम पा जाऐँ,
वो ही सारी खुशियाँ पाऐँ॥6॥
{गजल संग्रह -'मछली पर रेत और रेत मेँ गुल' से}
अशोक सिँह
ReplyDelete**पहरोँ नेँ रचा गीत**
जल गया चिराग आज,
कैसी अब हार-जीत?
पहरोँ ने रचा गीत॥1॥
प्यार की सुगंधि आज,
बिखर गयी मौसम मेँ।
द्वेष बना अनुराग,
संशय क्या संगम मेँ?
मादकता व्याप्त रहे, निर्भयता हो प्रतीत।
पहरोँ ने रचा गीत॥2॥
बरवश विक्षिप्ति हरे,
पहरोँ की अभिलाषा।
जड़ता पर चोट करे,
हितकारी कटु भाषा।
बंधन का मृदु आशय, हृदय को करे अभीत।
पहरोँ ने रचा गीत॥3॥
रखती अँधियारे मेँ,
हमको नित मनमानी।
बातेँ ही करते हम,
ना चलने की ठानी।
ऐसे मेँ अपनी भी क्षमता न हो प्रतीत।
पहरोँ ने रचा गीत।4॥
'सत्यवीर' पहरे ही,
रक्षक प्राचीर बने।
मारक विषधारा मेँ,
नष्ट हुए शत्रु घने।
टूट रही जड़ता अब, बनती जाए अतीत।
पहरोँ ने रचा गीत॥5॥
--------------अशोक सिँह 'सत्यवीर'
किरणोँ का संदेश
ReplyDeleteधरती के विशाल प्रांगण मेँ,
ऊषा की लाली नित लाकर।
रवि किरणेँ आकर वसुधा पर,
देँती मधुरिम हरियाली भर॥1॥
पंक्षी के अनगढ़ कलरव मेँ,
जाने किसका मान भरा है।
कलावन्त संगीतकार के,
अनुभव का अभिमान मरा है॥2॥
आँख खोलते हुऐ पुष्पदल,
नये यत्न का देँ अभ्यास।
पुन: उचारो! नव प्रयत्न पर,
होगा निश्चित मधुर समास॥3॥
वन, उपवन, वीथी, चौबारे,
आँगन मेँ भा गयी रागिनी।
नयी सुबह संदेश दे रही,
धरती माँ है चिर सुहागिनी॥4॥
एक नव्य संगीत गूँजता,
पुलक उठी रूठी मधुशाला।
यथा तमसमय मानस,उर मेँ,
ज्ञान रश्मि करती उजियाला॥5॥
बन्धु! उठो फिर से भय त्यागो,
पुन: भरो आँखोँ मेँ सपने।
नव प्रयत्न पर हो बलिहारी,
लक्ष्य तुम्हारे होँगे अपने॥6॥
अशोक सिँह 'सत्यवीर' {पुस्तक-'कुछ सौरभ बिखरा बिखरा सा'}