Wednesday, February 5, 2014

* पार्थ! अभी गाण्डीव उठाओ! *


** पार्थ! अभी गाण्डीव उठाओ! **

लेकर मृदु आह्वान, आ रही सेनाओं का भार घटाओ।
काल- निकष पर चढ़ो असंशय, पार्थ! अभी गाण्डीव उठाओ!1॥

अपने तल की परख करो,
अभिनय का लोभ विवेक नहीं ।
मृषा मोह अनुशीलित पथ पर, 
मूर्च्छित लौ का शोध कहीं ?

मदिरा पर हठ की जिज्ञाशा, तजो अभी, खुलकर मुस्काओ!
काल- निकष पर चढ़ो असंशय, पार्थ अभी गाण्डीव उठाओ॥2॥

सारा ध्यान मर्त्य पर केन्द्रित
बातें कितनी ऊँची करते!
दिखे नहीं गाम्भीर्य प्रवाहित,
किस आरोपित सर में तरते?
भ्रम को तज, यथार्थ के तल पर आओ!, अब कुछ पाओ।
काल- निकष पर चढ़ो असंशय, पार्थ! अभी गण्डीव उठाओ!3॥

युद्ध हेतु सन्नद्ध खड़े जो,
उनकी प्रेरक गति को मानो।
अपने तल पर युद्ध करेंगे,
यह अद्भुत सच्चाई जानो।
झूठे नाटक छोड़ो, अपना धर्म लखो! पथ पर बढ़ जाओ। काल- निकष पर चढ़ो असंशय, पार्थ! अभी गाण्डीव उठाओ!4॥

द्वन्द्व- ग्रसित, हे! जटिल मनस्वी! 
मृषा- दृष्टि में अपना कौन? 
'सत्यवीर' इक बिन्दु तुम्ही हो,
जिसमें मुखरित प्रीतम मौन।
वह विराट तुम स्वयं, भँवर की रचना पर अंकुश बन छाओ। काल- निकष पर चढ़ो असंशय, पार्थ! अभी गाण्डीव उठाओ!5॥

 अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}
मोबाइल- 08303406738

1 comment:

  1. * शंकर तब विषपान करेँ *
    January 28, 2014 at 11:18am

    विषय- ग्रसित,स्थूल लाभ- हित-
    पक्ष सभी जब प्राण हरेँ।
    हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करेँ॥1॥

    अकट हलाहल मंथन का फल,
    भीत- गीत प्रत्येक अधर पर।
    भोग- पार का वासी ही,
    इस पल का है नित उत्तम- उत्तर।
    स्मित- मुख, अविभेद- सहजता धर, किसका आह्वान करेँ?
    हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करेँ॥2॥

    प्रथम चरण मेँ मुख मेँ लेकर,
    पूर्व- वपित असहजता झेली।
    लिया कण्ठ मेँ धार अकट विष,
    अनुश्रुतियोँ से पारी खेली।
    भीष्म- घात अभिपचित दशा मेँ, दग्ध- दशा का भान हरेँ।
    हेतुरहित, अविरल अनीहवत्‌ शंकर तब विषपान करेँ॥3॥

    यह विष की अनजान दग्धता,
    आकुल करे समस्त अभार।
    गरल-पान, प्रत्यूह- भीति हित,
    रचता अभिनय का विस्तार।
    जब विवेक पर ग्रहण- रूप विष, सम्मोहित सम-सार करे।
    हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करेँ॥4॥

    भुक्ति- मुक्ति पर शब्द न जन्मे,
    शून्य दिशा मेँ अटकी दृष्टि।
    क्या मुस्कान?, शोध कर जानो,
    खिले हृदय, क्या अघटित वृष्टि?
    व्याख्यायित क्षमता हारे जब, असहज पत का मान मरे।
    हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करेँ॥5॥

    'सत्यवीर' मन्थन का साक्षी,
    अमृत का बल मृत का मूल।
    घटो! स्यात्‌ घट मेँ जा पाओ,
    इक प्रकाश मेँ लय सब शूल।
    विघटन पर निश्चलता टूटे, दग्ध कण्ठ पर गान मरे।
    हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करेँ॥6॥

    अशोक सिँह 'सत्यवीर' {पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

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