* अब नींद कहाँ? *
आवर्त्तन का संजाल कटा, प्रतिभेद अपार, असार यहाँ।
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं,अब नींद कहाँ?।।१।।
निर्झरणी थी इक बिन्दु, जहाँ-
जागृति का बीज- बपन प्रगटा।
पावस की दीर्घ अनुश्रुति में,
चंचलता का आवेग कटा।
विश्वास मरा; आवेश भरा, कैसा उत्ताप- विमोह यहाँ?
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं अब नींद कहाँ?।।२।।
कुछ भ्रम न रहा; मेरे उर में,
अपनी आँखों से सच देखा।
बस एक विधा, अपने से चल-
पावो निज को, इक पत देखा।
भिक्षुक तो, था सम्राट स्वयं, आह्लाद अगाध- प्रतीति यहाँ।
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं, अब नींद कहाँ?।।३।।
प्रतिदान मिले किसको? औ क्यों?
यह सहज जागरण का घट है।
तू ढ़ूँढ़ रहा कब से? किसको?
तू ही, वह बिषपायी नट है।
कैसा उपक्रम? निर्धार प्रकृति, किस हेतु अबद्ध मरे अब, हाँ?
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं, अब नींद कहाँ?।।४।।
हे सत्यवीर! निर्ब्याज- लब्धि,
बैकुण्ठ लहे अविराम, अजर।
पीड़ा पर ध्यान धरो, देखो!
क्या कल्प और क्या प्रकृत- प्रखर?
अनजान निनाद बना साथी, सब भेद खुले, अब खेद कहाँ?
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं, अब नींद कहाँ?।।५।।
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}
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