Tuesday, September 6, 2016

** सारे भेद अभेद रहे अब **

हठ प्रसंग पर ध्यान नहीं था, हुआ समर्पित हठी प्रयास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।१।।

सन्निपात उद्गार फूटते,
किन्तु तृषा कब हो परिभाषित?
स्वप्न श्रृंखला भंग हुई,
पर मानस में कुछ रिक्ति अभाषित।
आरोपित सिद्धांत मरेंगे, स्यात् मुखर हो सच्चित् रास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।२।।

ऋद्धि-सिद्धियाँ बरस पड़ीं अब,
निरसित रहे सभी अभियोग।
एक नव्य अनुभूति मुखर हो,
करे हृदय में नये प्रयोग।
इस गति पर मन्मथ आक्रोशित, सहज वमित हो गरलविलास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।३।।

लो! अब सावधान है मानस,
टेक रचे मादक संन्यास।
इस गति पर वैकुण्ठ पुकारे,
लहरें करें वक्र उपहास।
'सत्यवीर' इस प्रतिभिज्ञा में, वीतरागतामय आकाश।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।४।।

कुछ अज्ञात उभर कर आता,
विग्रहता है शुरू इधर।
इस विगलन का फल क्या होगा?
प्रश्न लिए उभरे कुछ स्वर।
सहज प्रगति सब आग्रह हरती, मलयानिल सा हो आभास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।५।।

किस अनुलेखन पर इतराऊँ,
बली भाव सब हुऐ अपरिचित।
अगणित जन्म, अकाट्य अर्गला,
सभी हो गए जिस पल निरसित।
शास्त्र शून्य, अनुभूति यही है, कर्माकर्म विलुप्त सहास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।६।।

अशोक सिंह सत्यवीर
[पुस्तक - "पथ को मोड़ देख निज पिय को "]

No comments:

Post a Comment