¤ काल परे की गति पाओ ¤
अजर- वाह पर दृष्टि डाल इक, ओ अपार! अब जग जाओ।
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।१।।
लो! आती आवाज सुनो यह,
जिसमें छुपा अमर का गीत।
नित्य पुकार चली आती है,
आकुल रहा आज भी मीत।
आवर्तन पर दृष्टि सुप्त है, किन्तु असीम कहे," आओ!"
फेरों में कब से उलझे! अब काल परे की गति पाओ।।२।।
निस्पृहता में मृत्यु नहीं है,
निर्भयता स्वाभाविक राग।
प्राप्ति मोहहत् अविरत्, पुष्पित,
मुस्काता अविराम विराग।
नर्तन पर चिन्ता नित मरती, कब कहती कुछ कर लाओ?
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।३।।
जग में जो कर्तव्य हेतु गति,
कैसे? कहाँ हृदय को सींचे?
भर लो अपने प्राण प्रेम से,
अनुशासन तब आये पीछे।
स्वतंत्रता में ही अनुशासन, तंत्रमुक्त होकर अब गाओ।
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।४।।
तंत्र और जग की मर्यादा,
काल बनी विकसित प्राणों की।
भावों में नित रहो प्रमाणिक,
परख करो चलते बाणों की।
'सत्यवीर' आचरण अधूरे, एक जागरण ही को ध्याओ।
फेरों में कब से उलझे?, अब काल परे की गति पाओ।।५।।
अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}
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