Wednesday, August 24, 2016

* ठहरना तो तब घटे *

* ठहरना तो तब घटे *

अनिग्रह से ग्रसित मानस, टेक इक पर जब मिटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।१।।

सत्य क्या है? झूठ क्या है?
सत- असत के पार जाकर।
क्या विरूपित? रूपमय क्या?
उस अकथ का सार पाकर।

त्यागकर चिन्तन- विधा को, सूत्र- पथ का पट हटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।२।।

खोज का अभियान रचकर,
अगर, कुछ ले लिया साधन।
दूर जाकर क्या मिलेगा?
भवन में रह, ओ! महामन।

तू स्वयं गन्तव्य अपना, जान! यात्रा जब रुके।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।३।।

है वृथा वह ज्ञान, जिसका-
है नहीं अनुभव स्वयं का।
है भला उससे, कि वह अज्ञान,
जो अपना स्वयं का।

जब स्वयं को जान जाओ, सहज ही यह जगत सिमटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।४।।

दो घड़ी का ध्यान झूठा,
शेष जब सम्भ्रम लिए सुर।
कुशलता तब ही सहज की,
हर घड़ी प्रीतम हँसे उर।

रात- दिन, हर पल सहज हो, ध्यान जब ऐसा घटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'{ पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

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