अभिलाषा ने अभिलाषाऐं मारीं, मार अचेत पडे़।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।१।।
सूत्रधार से सूत्र मिल गया,
मोती मुस्काऐ सायास।
गहे सूत्र स्तम्भ चढ़े कपि,
अभय पा रहा अब आकाश।
श्रुतियाँ कुछ सार्थक हो उभरीं, गर्दभता हिय की बिछुड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।२।।
छठें दिवस पूतना पधारी,
गरलग्रंथि पयरूप दिखी।
सद्गुरु की आकाश कृपा ने,
विष की गति अनुकूल लिखी।
मरी पूतना, कुल मुस्काया, नभ में शब्द अशब्द जड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुभूति बढ़े।।३।।
गुहा अपरिमित खींच रही अब,
कली पुनः अब बंद हुई।
इस गति का कुछ अंत कहें क्या?
स्वरगति कुछ-कुछ मंद हुई।
शून्य कृष्णिका शब्द अपहरण, कुसुम थाल ले देव खड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।४।।
"सत्यवीर” विधियाँ सब छूटें,
स्वर्ण जगत की सूझ मिले।
इधर सृजन बाधित हो वरवश,
उधर बोध के पुष्प खिलें।
अनुमिति का अभिधान भंग हैं, असुर-देव अब कहाँ लड़ें?
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
{पुस्तक- “पथ को मोड़ देख निज पिय को”}
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