Saturday, August 27, 2016

* काल परे की गति पाओ *

¤ काल परे की गति पाओ ¤

अजर- वाह पर दृष्टि डाल इक, ओ अपार! अब जग जाओ।
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।१।।

लो! आती आवाज सुनो यह,
जिसमें छुपा अमर का गीत।
नित्य पुकार चली आती है,
आकुल रहा आज भी मीत।

आवर्तन पर दृष्टि सुप्त है, किन्तु असीम कहे," आओ!"
फेरों में कब से उलझे! अब काल परे की गति पाओ।।२।।

निस्पृहता में मृत्यु नहीं है,
निर्भयता स्वाभाविक राग।
प्राप्ति मोहहत्‌ अविरत्‌, पुष्पित,
मुस्काता अविराम विराग।

नर्तन पर चिन्ता नित मरती, कब कहती कुछ कर लाओ?
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।३।।

जग में जो कर्तव्य हेतु गति,
कैसे? कहाँ हृदय को सींचे?
भर लो अपने प्राण प्रेम से,
अनुशासन तब आये पीछे।
स्वतंत्रता में ही अनुशासन, तंत्रमुक्त होकर अब गाओ।
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।४।।

तंत्र और जग की मर्यादा,
काल बनी विकसित प्राणों की।
भावों में नित रहो प्रमाणिक,
परख करो चलते बाणों की।
'सत्यवीर' आचरण अधूरे, एक जागरण ही को ध्याओ।
फेरों में कब से उलझे?, अब काल परे की गति पाओ।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

Wednesday, August 24, 2016

* ठहरना तो तब घटे *

* ठहरना तो तब घटे *

अनिग्रह से ग्रसित मानस, टेक इक पर जब मिटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।१।।

सत्य क्या है? झूठ क्या है?
सत- असत के पार जाकर।
क्या विरूपित? रूपमय क्या?
उस अकथ का सार पाकर।

त्यागकर चिन्तन- विधा को, सूत्र- पथ का पट हटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।२।।

खोज का अभियान रचकर,
अगर, कुछ ले लिया साधन।
दूर जाकर क्या मिलेगा?
भवन में रह, ओ! महामन।

तू स्वयं गन्तव्य अपना, जान! यात्रा जब रुके।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।३।।

है वृथा वह ज्ञान, जिसका-
है नहीं अनुभव स्वयं का।
है भला उससे, कि वह अज्ञान,
जो अपना स्वयं का।

जब स्वयं को जान जाओ, सहज ही यह जगत सिमटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।४।।

दो घड़ी का ध्यान झूठा,
शेष जब सम्भ्रम लिए सुर।
कुशलता तब ही सहज की,
हर घड़ी प्रीतम हँसे उर।

रात- दिन, हर पल सहज हो, ध्यान जब ऐसा घटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'{ पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

*आप स्वयं में होकर लय*

* आप स्वयं में होकर लय *

शान्त स्व-गति पर बलि- बलि जाऊँ, कैसे घटता यह विस्मय?
इसका भेद खुले कब? समझो, आप स्वयं में होकर लय।।१।।

यात्रा करते युग कब बीता,
कितने धारण किये शरीर!
कितने साधन पर चल देखा!
क्या कायर? क्या सच्चा वीर?

अनजाने में तीर लगा कब? जली ज्योति बन कब निर्भय?
इसका भेद खुले कब? समझो! आप स्वयं में होकर लय।।२।।

योग अनेक जगत में प्रचलित,
जागृति की परिघटना एक।
ज्ञान- भक्ति पर प्रश्न अधूरे,
घटित जागरण का घट एक।

भेद आचरण तक सीमित है, आगे शब्दगलित अक्षय।
इसका भेद खुले कब? समझो! आप स्वयं में होकर लय।।३।।

प्रचलित तथ्य 'प्रेम कंटक- पथ,
सार वस्तु से एक करे'।
किन्तु इसे भी कच्चा मानो,
मर्म न जब तक नेक सरे।

'चिन्तन- कर्म' बताता, अब भी, पूरा नहीं हुआ आशय।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।४।।

धर्म- भीरुता, गुरुता- लघुता,
समता की व्याख्या नि:सार।
किसकी रक्षाहित सन्नध मन?,
अब भी मर न सका व्यापार।

"व्याख्या पर वाणी रुक जाये, जब अखण्ड पर मरे हृदय"।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।५।।

स्पर्धा अब भी जारी है,
आभूषण पर चित्त रुका।
पार- शील का तल क्या जानो!
माया पर ही शोध झुका।

तुम क्या हो? भटके किस तट? अब ओ सम्राट! समझ आशय।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।६।।

'सत्यवीर' "आह्लाद सनातन,
कर्म- कथा कृत्रिम अभ्यास"।
नाटक रचकर सूत्रधार ने,
मोहबद्ध हो किया विलास।

गर्हित- पीव लिए तू डोले, झूठी नीति, कि झूठा नय।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।७।।

स्रोत अमृत का, रूप- पार छवि,
किस पत पर नित रुदन करे?
कोटिहीन, प्रसरित कण- कण पर,
अब तो उर को अमन करे।

ओ! अबद्ध, ओ! मृत्युपार,निष्काम, विमुक्त, सनातन वय।
इसका भेद खुले कब? समझो! आप स्वयं में होकर लय।।८।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक- 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

* किस भाषा में व्यक्त करें? *

* किस भाषा में व्यक्त करें? *

अवगुण्ठित जिह्वा रुक जाये, कैसे कुछ अभिव्यक्त करें?
बातें उतर नहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।१।।

बाह्य-दृष्टि में कल्पकथा है,
किन्तु अगम सच का अभिलेखन।
स्यात्‌ पहुँच जाओ उस तल पर,
शून्य भाव पर कैसा मन?

थोड़ी सी वह दिव्य झलक, इस मन को भी अनुरक्त करे।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें।।२।।

पद पाकर, पद रहित बन गये,
आत्मपथिक को क्या पाथेय!
आकुलता आह्लाद बन गयी,
स्वत: घटित, किसको दें श्रेय?

गहन गुफा की ज्योतिर्मयता, तम से चिर प्रतिरक्त करे।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।३।।

नादशून्यता, क्या निनादमय!
विश्व- विधा का सब परिमापित।
श्लाघा का व्यामोह शून्य है,
व्यर्थ हुआ पत महिमामण्डित।

सुख- दु:ख का आह्वान उपेक्षित, मुदिता की विज्ञप्ति सरे।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।४।।

यदा- कदाचित्‌ इन आँखों में,
अनुभव का गाम्भीर्य उतरता
मस्ती का लालित्य अनूठा,
परखो जानो अब क्या सरता?

किस लिपि को उपधान बनाकर, अनुभव सरणि विभक्ति हरें।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक- पथ को मोड़ देख निज पिय को}

Friday, August 12, 2016

* पारस में अनुराग बढ़े *


अभिलाषा ने अभिलाषाऐं मारीं, मार अचेत पडे़।

धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।१।।

सूत्रधार से सूत्र मिल गया,
मोती मुस्काऐ सायास।
गहे सूत्र स्तम्भ चढ़े कपि,
अभय पा रहा अब आकाश।

श्रुतियाँ कुछ सार्थक हो उभरीं, गर्दभता हिय की बिछुड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।२।।

छठें दिवस पूतना पधारी,
गरलग्रंथि पयरूप दिखी।
सद्गुरु की आकाश कृपा ने,
विष की गति अनुकूल लिखी।

मरी पूतना, कुल मुस्काया, नभ में शब्द अशब्द जड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुभूति बढ़े।।३।।

गुहा अपरिमित खींच रही अब,
कली पुनः अब बंद हुई।
इस गति का कुछ अंत कहें क्या?
स्वरगति कुछ-कुछ मंद हुई।

शून्य कृष्णिका शब्द अपहरण, कुसुम थाल ले देव खड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।४।।

"सत्यवीर” विधियाँ सब छूटें,
स्वर्ण जगत की सूझ मिले।
इधर सृजन बाधित हो वरवश,
उधर बोध के पुष्प खिलें।

अनुमिति का अभिधान भंग हैं, असुर-देव अब कहाँ लड़ें?
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर
{पुस्तक- “पथ को मोड़ देख निज पिय को”}