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Sunday, May 22, 2016
Sunday, May 15, 2016
* नीति प्रीति का साथ मधुर *
जीवन की अमृतमय धारा, स्नेह-सलिल अभिवाहित सुर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति प्रीति का साथ मधुर॥1॥
कृपण रहा यह अद्भुत मानव,
विकसित कहता, रहा अबोध।
धूनी चला रमाने भगकर,
ठुकराकर उर का अनुरोध।
समरसता की प्यारी रहनी, छुपा रहा आनंद प्रचुर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति प्रीति का साथ मधुर॥2॥
जो अद्भुत मणियों का स्वामी,
ऐसा जीवन कहाँ असार?
खारा कह जीवनसागर को,
तजा श्रेय-समृद्धि अपार।
दृष्टिभेद पर प्रश्न शेष है, पर किस हेतु रहे आतुर?
काँटों में फूलों की संगति, नीति-प्रीति का साथ मधुर॥3॥
नित्य लब्धि से रहे अपरिचित,
चंचल पत पर क्यों इतराऐ?
अविरल धार गिरे अमृत की,
मृषा- तृषा हित इत-उत धाऐ।
क्रैषक कर्म अनाविल करता, गति तुरीय पर मुक्ता थिर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति-प्रीति का साथ मधुर॥4॥
युवा हृदय, यौवनयुत मानस में,
जीवन का सत्य उभरता।
दुरुहदशाओं से मत भागो,
सच में यौवन यहीं विकसता।
'सत्यवीर' खतरों में जागो, छुपा वहीं पीयूष प्रचुर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति-प्रीति का साथ मधुर॥5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
[पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को']
🌿🌺वन्दना अविराम भायी🌺🌿
🌹पंथ की रचना अगोचर, जब गिरे, औ भीति आयी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥1॥🌹
🍂कब प्रमाणिक हो सकी है,
वन्दना में प्रीति कितनी?
श्वास-संचारित कथा की,
है अखण्ड प्रतीति कितनी?🍂
🌹यत्न पर अनुग्रह मिले कब? लौ अदोष रही जलायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥2॥🌹
🍂प्रेम की दुर्धर कसौटी-
पर खरे, हो सिद्ध कैसे?
सिंहिनी वरती रही है-
सिंह, रहा प्रसिद्ध जैसे।🍂
🌹शक्ति का आह्वान उर में, टेक इक जब भी बनायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥3॥🌹
🍂यत्न करके क्लान्तिमय बन,
प्रेय की अनुभूति पाकर।
छोड़ते नि:श्वास अविरत,
दिख गया कुछ-कुछ सुधाकर।🍂
🌹ज्ञान का अभिमान तज अब, जब बना विषकूट पायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥4॥🌹
🍂भेद किसको मिल सका है,
प्रिय मिले, पहचान पा ले?
शब्द में ही पथ छुपा है,
पत्थरों में मणि सँभाले।🍂
🌹'सत्यवीर' विवेक मति से, दृष्टि में दे सच दिखायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥5॥🌹
🍃अशोक सिंह 'सत्यवीर'🍃
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
Published on 23 October 2014
🌱🌺हठ पर तब नट इतराये 🌺🌱
🌱
कृषि हित उद्यम पर, पावस बरसे जब, मन को भाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक हठ पर, तब नट इतराये॥1॥🌱
इक दिव्य गंध परिचित सी,
उठ रही हृदय, मानस में ।
अगणित, वे सुप्त कथाऐं,
अभिदर्शित अब अन्तस में ।
🌱सारे व्यापार चलें पर, निर्लिप्ति अनवरत् छाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक, हठ पर नट तब इतराये॥2॥🌱
उल्लसित दग्धता कृत्रिम,
मस्ती पर भी चिन्तन कर।
सच फलित तभी होगा जब,
इक स्वयं अभी ही तू मर।
🌱जब गहराई की थाह हेतु, डुबकी पर भय न तनिक आये।
अनमेल, अपरिभाषित इक, हठ पर तब नट इतराये॥3॥🌱
यम की बलवती कथा का,
जब भेद खुले, भय भागे।
क्या मिला कि तू इतराये?
औ क्या ऐसा, जो त्यागे?
🌱मुस्कान अखण्ड बने तब, जब भी अपने को पाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक हठ पर, तब नट इतराये॥4॥🌱
यह 'सत्यवीर' की लीक नीक,
प्रचलित पत के विपरीत रही।
अपने अनुभव पर बलिहारी,
कब की असहजता आज बही।
🌱अज्ञात् मिले जब अनुभव में, अपने में मस्ती छाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक हठ पर तब नट इतराये॥5॥🌱
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
Saturday, May 14, 2016
** जब अज्ञात् पुकारे अविरल **
सूख गये रस, रसना सूखी, रस आकण्ठ गहे निर्मल।
सब अस्तित्व नया तब लगता, जब अज्ञात् पुकारे अविरल॥1॥
आँखों में गहराई आये,
मुखमण्डल निर्दोष रहे।
मानस में व्यापकता छाये,
शून्य भाव अविराम गहे।
सभी दिशाऐं मादक लगतीं, घनीभूत बन जाय तरल।
सब अस्तित्व नया तब लगता, जब अज्ञात पुकारे अविरल॥2॥
कभी-कभी आवेश-दशा में,
सभी दिशाऐं लगें विभोर।
'किधर चलूँ?' उत्सुकता व्यापे,
प्रीतम की आहट चहुँ ओर।
अंग-अंग का कम्पन देता, पंखुड़ियों की खबर अटल।
सब अस्तित्व नया तब लगता, जब अज्ञात पुकारे अविरल॥3॥
मस्तक भार विहीन लगे, औ-
अब विदेहता प्रगति करे।
स्वत:स्फुरित भाव सिद्ध हों,
दग्ध रहे तन, मौन भरे।
कभी- कभी वीणा के स्वर सा, गुंजित हो अस्तित्व सकल।
सब अस्तित्व नया तब लगता, जब अज्ञात पुकारे अविरल॥4॥
धीरे-धीरे लय हो जाते,
सभी जागतिक भाव विभिन्न।
मानस हो निर्द्वन्द्व कि ऐसा,
रहे इष्ट से एक, अभिन्न।
शूल-फूल में समता व्यापे, शेष बुद्धि के भाव बिमल।
सब अस्तित्व नया तब लगता, जब अज्ञात पुकारे अविरल॥5॥
'सत्यवीर' पत की अनुभाषा,
विकसित करे पात्र का भाव।
अधिक प्रगति पर भाव भी मरे,
प्राण भरें सब भावाभाव। )
गूँज उठी शहनाई, धाई पिय पद अब प्रियतमा विकल।
सब अस्तित्व नया तब लगता, जब अज्ञात पुकारे अविरल॥6॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
मोबाइल नंबर - 08303406738
* उत्तर के सब आधार मरे *
हुयीं दिशाऐं शून्य, कालगति है स्तम्भित, क्या लहरे?
किस मति पर व्यापार हो सके? उत्तर के सब आधार मरे॥1॥
चरम बिन्दु पर दिखा न कोई,
किसकी कथा कहें? कुछ मानो।
जिस निनाद पर यात्रा ठिठकी,
उसका स्रोत मुझी में जानो।
जगतरथी का प्रेरक अद्भुत, रहे विटप सब हरे भरे।
किस मति पर व्यापार हो सके? उत्तर के सब आधार मरे॥2॥
कुछ संकल्प न उठते उर में,
कामहीन मानस अविराम।
निर्ममता श्रृंगार बन गयी,
अनहद में पाया विश्राम।
क्या उत्तर आये गह्वर से? जबकि अनन्त गुरुत्व सरे।
किस मति पर व्यापार हो सके? उत्तर के सब आधार मरे॥3॥
मुक्त वाह पर प्रीतम ठिठके,
हंस गुफा पर दे आवाज।
पहरे अर्थहीन क्या ठहरे?
व्यर्थ हुए जग के सब साज।
पलभर को आश्चर्यचकित, पर सहज अभाव सतत् बिहरे।
किस मति पर व्यापार हो सके? उत्तर के सब आधार मरे॥4॥
'सत्यवीर' अनवद्य दशा में,
गौ का भार अभार बने।
जागृति रहे अखण्ड पुरुष की,
चन्द्रकलाऐं हार बनें।
स्वर्णपंख अविकार प्रचारित, ऊर्ध्वगगन में गान करे।
किस मति पर व्यापार हो सके? उत्तर के सब आधार मरे॥5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
मोबाइल नंबर - 08303406738
** अब तो मछली हुई सुहागन **
जल में अग्नि लगी, मुस्काये कमलनाल की चिर अभिलाषा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥1॥
आँख खुली जब, अचरज देखा,
छाया का न कहीं आभास।
विरह वेदना में पल बीते,
प्रियतम से नित रहा समास।
अद्भुत वर अभिशाप बना था, पर जागृत थी नन्हीं आशा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥2॥
स्वत: जग गयी मौलिक ऊर्जा,
सृष्टि-विधायक हुयीं दिशाऐं।
अप्रमाद में प्रमुदित उर को,
इक प्रियतम की ध्वनियाँ भाऐं।
रहीं तिरोहित इच्छाऐं सब, मार मरा, सोयी जिज्ञाशा।
अब तो मछली हुई सुहागन कब की संचित मिटी पिपाशा॥3॥
मरुतर तल में अमृत उभरे,
वानर गाये मधुरिम गान।
शून्य, शून्य से पुन: भरे अब,
नित प्रवीणता भरती तान।
गिरा, गिरा पर भेद, छँट गया भेदसृजक अनिवार कुहासा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥4॥
'सत्यवीर' तारक पीड़ा का-
भेद किसे समझाऐं जग में?
निर्गुण खोज करें गुण लेकर,
भोगसिद्धि कैसी इस मग में?
बादल आने को व्याकुल हैं, लाओ इक लव भर जिज्ञाशा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(पुस्तक--"पथ को मोड़ देख निज पिय को")
* शंकर तब विषपान करें *
विषय- ग्रसित,स्थूल लाभ-हित, पक्ष सभी जब प्राणहरेें।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करें॥1॥
अकट हलाहल मंथन का फल,
भीत- गीत प्रत्येक अधर पर।
भोग- पार का वासी ही,
इस पल का है नित उत्तम- उत्तर।
स्मित मुख, अविभेद सहजता धर, किसका आह्वान करें?
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करें॥2॥
प्रथम चरण में मुख में लेकर,
पूर्व- वपित असहजता झेली।
लिया कण्ठ में धार अकट विष,
अनुश्रुतियों से पारी खेली।
भीष्म- घात अभिपचित दशा में, दग्ध- दशा का भान हरें।
हेतुरहित, अविरल अनीहवत् शंकर तब विषपान करें॥3॥
यह विष की अनजान दग्धता,
आकुल करे समस्त अभार।
गरल-पान, प्रत्यूह- भीति हित,
रचता अभिनय का विस्तार।
जब विवेक पर ग्रहण- रूप विष, सम्मोहित सम-सार करे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करें॥4॥
भुक्ति- मुक्ति पर शब्द न जन्मे,
शून्य दिशा में अटकी दृष्टि।
क्या मुस्कान? शोध कर जानो,
खिले हृदय, क्या अघटित वृष्टि?
व्याख्यायित क्षमता हारे जब, असहज पत का मान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करें॥5॥
'सत्यवीर' मन्थन का साक्षी,
अमृत का बल मृत का मूल।
घटो! स्यात् घट में जा पाओ,
इक प्रकाश में लय सब शूल।
विघटन पर निश्चलता टूटे, दग्ध कण्ठ पर गान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करें॥6॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}
**किरणों का संदेश**
धरती के विशाल प्रांगण में,
ऊषा की लाली नित लाकर।
रवि किरणें आकर वसुधा पर,
देतीं मधुरिम हरियाली भर॥1॥
पंक्षी के अनगढ़ कलरव में,
जाने किसका मान भरा है।
कलावन्त संगीतकार के,
अनुभव का अभिमान मरा है॥2॥
आँख खोलते हुऐ पुष्पदल,
नये यत्न का दें अभ्यास।
पुन: उचारो! नव प्रयत्न पर,
होगा निश्चित मधुर समास॥3॥
वन, उपवन, वीथी, चौबारे,
आँगन में भा गयी रागिनी।
नयी सुबह संदेश दे रही,
धरती माँ है चिर सुहागिनी॥4॥
एक नव्य संगीत गूँजता,
पुलक उठी रूठी मधुशाला।
यथा तमसमय मानस,उर में,
ज्ञान रश्मि करती उजियाला॥5॥
बन्धु! उठो फिर से भय त्यागो,
पुन: भरो आँखों में सपने।
नव प्रयत्न पर हो बलिहारी,
लक्ष्य तुम्हारे होंगे अपने॥6॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक-'कुछ सौरभ बिखरा बिखरा सा'}
** सूली के संकेत कहाँ? **
¤ सूली के संकेत कहाँ? ¤
मिली लाडली अपने पिय से, उसका अपना देश जहाँ।
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ?1॥
थी कितनी भयभीत! सुना था;
सूली ऊपर सेज पिया की।
यह कपोल कल्पित गाथा,
अब मरी, न है अब कुछ भी बाकी।
क्या अगाध विश्राम अनूठा! नहीं कल्पना तनिक वहाँ।
प्रीतम का अभिसार सहज है, शूली के संकेत कहाँ?2॥
क्या अकाम मादकता व्यापी!
दिव्य- वक्ष पर उतरा पावस।
सदा जागरण- विलसित घट पर,
नित संक्रान्ति व नित्य अमावस।
शून्य- मेदिनी की अनुकम्पा, कैसी जीवन- मृत्यु वहाँ?
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ? 3॥
भौंरे से पीड़ित, लालीहत् ,
पर, परदेश, कल्प- अवगुण्ठन।
खिला हठात् पुष्प, जब उर- सर,
मरा भ्रमर तत्क्षण, पाया धन।
है अवाक्, पर प्रकट उल्लसित, समझो! दिव्य-प्रवेश वहाँ।
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ? 4॥
'सत्यवीर' देखे का अनुभव;
श्रुत- पत के बिल्कुल विपरीत।
शास्त्र कहें क्या शून्य- दशा को!
परखो स्वयं समर्पित प्रीत।
साधन की चर्चा- प्रसंग, नि:सार- भार, पर श्रेय कहाँ?
प्रीतम का अभिसार सहज है, सूली के संकेत कहाँ?5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक: "पथ को मोड़ देख निज पिय को"} geet no-22
मोबाइल नंबर - 08303406738