धरती के विशाल प्रांगण में,
ऊषा की लाली नित लाकर।
रवि किरणें आकर वसुधा पर,
देतीं मधुरिम हरियाली भर॥1॥
पंक्षी के अनगढ़ कलरव में,
जाने किसका मान भरा है।
कलावन्त संगीतकार के,
अनुभव का अभिमान मरा है॥2॥
आँख खोलते हुऐ पुष्पदल,
नये यत्न का दें अभ्यास।
पुन: उचारो! नव प्रयत्न पर,
होगा निश्चित मधुर समास॥3॥
वन, उपवन, वीथी, चौबारे,
आँगन में भा गयी रागिनी।
नयी सुबह संदेश दे रही,
धरती माँ है चिर सुहागिनी॥4॥
एक नव्य संगीत गूँजता,
पुलक उठी रूठी मधुशाला।
यथा तमसमय मानस,उर में,
ज्ञान रश्मि करती उजियाला॥5॥
बन्धु! उठो फिर से भय त्यागो,
पुन: भरो आँखों में सपने।
नव प्रयत्न पर हो बलिहारी,
लक्ष्य तुम्हारे होंगे अपने॥6॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक-'कुछ सौरभ बिखरा बिखरा सा'}
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