जीवन की अमृतमय धारा, स्नेह-सलिल अभिवाहित सुर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति प्रीति का साथ मधुर॥1॥
कृपण रहा यह अद्भुत मानव,
विकसित कहता, रहा अबोध।
धूनी चला रमाने भगकर,
ठुकराकर उर का अनुरोध।
समरसता की प्यारी रहनी, छुपा रहा आनंद प्रचुर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति प्रीति का साथ मधुर॥2॥
जो अद्भुत मणियों का स्वामी,
ऐसा जीवन कहाँ असार?
खारा कह जीवनसागर को,
तजा श्रेय-समृद्धि अपार।
दृष्टिभेद पर प्रश्न शेष है, पर किस हेतु रहे आतुर?
काँटों में फूलों की संगति, नीति-प्रीति का साथ मधुर॥3॥
नित्य लब्धि से रहे अपरिचित,
चंचल पत पर क्यों इतराऐ?
अविरल धार गिरे अमृत की,
मृषा- तृषा हित इत-उत धाऐ।
क्रैषक कर्म अनाविल करता, गति तुरीय पर मुक्ता थिर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति-प्रीति का साथ मधुर॥4॥
युवा हृदय, यौवनयुत मानस में,
जीवन का सत्य उभरता।
दुरुहदशाओं से मत भागो,
सच में यौवन यहीं विकसता।
'सत्यवीर' खतरों में जागो, छुपा वहीं पीयूष प्रचुर।
काँटों में फूलों की संगति, नीति-प्रीति का साथ मधुर॥5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
[पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को']
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