🌹पंथ की रचना अगोचर, जब गिरे, औ भीति आयी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥1॥🌹
🍂कब प्रमाणिक हो सकी है,
वन्दना में प्रीति कितनी?
श्वास-संचारित कथा की,
है अखण्ड प्रतीति कितनी?🍂
🌹यत्न पर अनुग्रह मिले कब? लौ अदोष रही जलायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥2॥🌹
🍂प्रेम की दुर्धर कसौटी-
पर खरे, हो सिद्ध कैसे?
सिंहिनी वरती रही है-
सिंह, रहा प्रसिद्ध जैसे।🍂
🌹शक्ति का आह्वान उर में, टेक इक जब भी बनायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥3॥🌹
🍂यत्न करके क्लान्तिमय बन,
प्रेय की अनुभूति पाकर।
छोड़ते नि:श्वास अविरत,
दिख गया कुछ-कुछ सुधाकर।🍂
🌹ज्ञान का अभिमान तज अब, जब बना विषकूट पायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥4॥🌹
🍂भेद किसको मिल सका है,
प्रिय मिले, पहचान पा ले?
शब्द में ही पथ छुपा है,
पत्थरों में मणि सँभाले।🍂
🌹'सत्यवीर' विवेक मति से, दृष्टि में दे सच दिखायी।
तब हृदय की मृदु गुहा में, वन्दना अविराम भायी॥5॥🌹
🍃अशोक सिंह 'सत्यवीर'🍃
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
Published on 23 October 2014
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