जल में अग्नि लगी, मुस्काये कमलनाल की चिर अभिलाषा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥1॥
आँख खुली जब, अचरज देखा,
छाया का न कहीं आभास।
विरह वेदना में पल बीते,
प्रियतम से नित रहा समास।
अद्भुत वर अभिशाप बना था, पर जागृत थी नन्हीं आशा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥2॥
स्वत: जग गयी मौलिक ऊर्जा,
सृष्टि-विधायक हुयीं दिशाऐं।
अप्रमाद में प्रमुदित उर को,
इक प्रियतम की ध्वनियाँ भाऐं।
रहीं तिरोहित इच्छाऐं सब, मार मरा, सोयी जिज्ञाशा।
अब तो मछली हुई सुहागन कब की संचित मिटी पिपाशा॥3॥
मरुतर तल में अमृत उभरे,
वानर गाये मधुरिम गान।
शून्य, शून्य से पुन: भरे अब,
नित प्रवीणता भरती तान।
गिरा, गिरा पर भेद, छँट गया भेदसृजक अनिवार कुहासा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥4॥
'सत्यवीर' तारक पीड़ा का-
भेद किसे समझाऐं जग में?
निर्गुण खोज करें गुण लेकर,
भोगसिद्धि कैसी इस मग में?
बादल आने को व्याकुल हैं, लाओ इक लव भर जिज्ञाशा।
अब तो मछली हुई सुहागन, कब की संचित मिटी पिपाशा॥5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(पुस्तक--"पथ को मोड़ देख निज पिय को")
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