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कृषि हित उद्यम पर, पावस बरसे जब, मन को भाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक हठ पर, तब नट इतराये॥1॥🌱
इक दिव्य गंध परिचित सी,
उठ रही हृदय, मानस में ।
अगणित, वे सुप्त कथाऐं,
अभिदर्शित अब अन्तस में ।
🌱सारे व्यापार चलें पर, निर्लिप्ति अनवरत् छाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक, हठ पर नट तब इतराये॥2॥🌱
उल्लसित दग्धता कृत्रिम,
मस्ती पर भी चिन्तन कर।
सच फलित तभी होगा जब,
इक स्वयं अभी ही तू मर।
🌱जब गहराई की थाह हेतु, डुबकी पर भय न तनिक आये।
अनमेल, अपरिभाषित इक, हठ पर तब नट इतराये॥3॥🌱
यम की बलवती कथा का,
जब भेद खुले, भय भागे।
क्या मिला कि तू इतराये?
औ क्या ऐसा, जो त्यागे?
🌱मुस्कान अखण्ड बने तब, जब भी अपने को पाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक हठ पर, तब नट इतराये॥4॥🌱
यह 'सत्यवीर' की लीक नीक,
प्रचलित पत के विपरीत रही।
अपने अनुभव पर बलिहारी,
कब की असहजता आज बही।
🌱अज्ञात् मिले जब अनुभव में, अपने में मस्ती छाये।
अनमेल, अपरिभाषित इक हठ पर तब नट इतराये॥5॥🌱
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
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