¤ उतरी उत्सव की धारा ¤
उलट गयी नौका, पर डूबी संग- संग सरिता की धारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।१।।
यष्टिपात् जब हुआ, कि जानो-
यात्रा का अवसान हुआ।
सूत्रपात् जब घटे, कि समझो-
मोती का सन्धान हुआ।
सुनो आ रही ध्वनि, अनहदमय लगता अब आलम सारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।२।।
सन्निपात आह्वान प्रबल है,
चेतन पर अभ्यास घटा।
उड्गन मचल गये बालकवत्,
सूरज का दर्शन सिमटा।
वन की हिंस्रकता में टूटी, अपने सुर की चिर कारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।३।।
आरोपित अभिधान व्यर्थ अब,
निरसित रहे सभी अभियोग।
एक बिन्दु में सभी उपकरण,
बाह्य जगत क्या उपयोग?
अशित हो, कि शित यह तुम जानो, हम पर आरोपण हारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।४।।
'सत्यवीर' सम्मेलित चेतन,
किन्तु रहे निर्लिप्त अहो!
साधन पर चलते सब, चाहे-
ज्ञात रहे या ज्ञात न हो।
कैसा संकट इस चेतन पर? कैसा सागर अब खारा?
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।५।।
अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' }
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