*फल का सहज सुलभ विज्ञान *
जीवन का माधुर्य खिला नित, सतत् वाह का मृदु आह्वान।
स्वर्णिम लोक प्रसारित हर पल, फल का सहज, सुलभ विज्ञान।।१।।
ध्येय दृष्टिगत रहे, कि ध्याता-
स्वयं बहे, घट जाये ध्यान।
यथा लहर को परस करे,
बन लहर स्वयं, उस वारि समान।
यही प्रगति दुर्लभ मोती है, विगलन ही अंतिम निर्वान।
स्वर्णिम लोक प्रसारित हर पल, फल का सहज सुलभ विज्ञान।।२।।
मुक्तिसाध्य उपलब्धि अपरिचित,
जगती का मिथ्यात्व तजें कब?
मुक्त गगन की प्रतिभिज्ञा में,
स्यात स्वत: छूटें सब करतब।
स्वर की लयता में अभेदगति प्राप्त करें, छूटें अभिधान।
स्वर्णिम लोक प्रसारित हर पल, फल का सहज-सुलभ विज्ञान।।३।।
सम्मोहित सारांश खिले तब,
जब जागरण प्रहार बने।
गोरस मरे खिले तब कुंदन,
पंचभूत आहार बनें ।
नाक गहे आकार स्वयं ही, पारस का अवतार प्रमाण।
स्वर्णिम लोक प्रसारित हर पल, फल का सहज-सुलभ विज्ञान।।४।।
'सत्यवीर' चिर परिचित गंगा,
लीन त्रिधारा कहाँ दिख सके?
कौन कहे 'मैं कौन'? यहाँ पर,
किस संज्ञा में शून्य लिख सके?
गहराई में आरोहण का कौन कर सके सफल बखान?
स्वर्णिम लोक प्रसारित हर पल, फल का सहज-सुलभ विज्ञान।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
(पुस्तक : पथ को मोड़ देख निज पिय को )
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