* आतप का संसार मधुर *
प्रीतम की मधुरिम प्रतीति पर, परिवर्तित सब मोहक सुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।१।।
रण में वरवश लिप्त हो गये,
फल पर अब कैसा आक्षेप?
युद्ध-विरति हित तत्पर हो,
पर नहीं नियन्त्रित कुछ विक्षेप।
द्रष्टा की तटस्थ आँखों में, रह-रह ज्योति जले स्फुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।२।।
प्रगलनहित उत्तप्ति जरूरी,
स्वर्ण-शोध तब फल पाये।
प्रीतम के दर्शनहित तप पर,
आशाअमिय छलक जाये।
क्या आनन्द चला आता है! हृदय अनवरत् है आतुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।३।।
अनुभवरहित धर्म की व्याख्या,
करे विदूषकवत् व्यवहार।
शीलहीन मानस आह्लादित,
क्या तुरीयमय नित व्यापार!
नटवर विष पर करे गर्जना, मुस्काये समत्वमय उर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।४।।
मौसम की भीषण मरुता में,
छूट रही मोहक मुस्कान।
यजन स्वाँस का स्वत: हो रहा,
रहें नियन्त्रित प्राणापान।
'सत्यवीर' जो यह गति पावे, सच में उसको कहो चतुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
{पुस्तक:'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
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