* सागर का आह्लाद स्थगित *
नित्य तृप्त, नित पार विहग, अब देख स्वयं को हुआ अचम्भित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।१।।
भोजन हित उद्यम क्या करना,
तृप्तिस्रोत पर खोज स्खलित?
कभी बुभुक्षा भी थी, यह भी
सिद्ध हुआ भ्रम, थाह समर्पित।
नृत्यहीनता शून्य नृत्यमय, बरसे एकराग में अब नित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।२।।
अपरावर्त इन्द्रधनु नभ में,
अविकारी का दे आघोष।
आज बदलते इस मौसम पर,
उपज रहा कुछ नव सन्तोष।
क्रीड़ा पर ब्रीड़ा अवगुण्ठित, और शेष अवसाद समर्पित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।३।।
ऋद्धि-सिद्धि औ निधि पर भारी,
इक पल की यह भाव-दशा।
अष्ट- प्रहर पशु करे जुगाली,
पर मानस पर मन विहँसा।
मरु प्रदेश में अमियधार बन, बरसे आतपसार अमित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।४।।
'सत्यवीर' अस्पृष्ट, अनाविल,
अनाघ्रात, अब भी कस्तूरी।
बात समझ में आ जायेगी,
जिस पल, दृष्टि पड़ेगी पूरी।
शोकपार जाने को, उद्यत शिशु के मुख में उतरे अमृत।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।५।।
अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक- 'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
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