* कैसा प्रतिवेदन विपरीत! *
आस्था मरी सभी शास्त्रों पर, किन्तु प्रगाढ़ रही अनुप्रीत।
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।१।।
अनुभव पर व्याख्याऐं हारीं,
दया, धर्म की कथा मिटी।
क्या व्यापार कि क्षुद्र अघोषित!
यश-कंचन पर गति सिमटी।
सहज दिव्यता से अनुप्राणित उर में नहीं हार, वा जीत।
किस सुजान पर प्रकट करूँ मैं? कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।२।।
विचलन में चैतन्य प्रमाणित,
गतिमय लगे, किन्तु अभिशान्त।
लीलाधर की लीला मुखरित,
माया कहें इसे कुछ भ्रान्त।
मुखविहीन कब बने प्रलापी? कब आये गर्मी, कब शीत?
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।३।।
मृत्युभेद पर बिखरी बातें,
किन्तु जीव-अमरत्व प्रसिद्ध।
पर इक जन्म- रहस्य अनावृत,
मुक्त कर सके आत्मा, बिद्ध।
प्रकट वेदना में मुखरित नित, फूटे कब निष्काम अगीत?
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।४।।
मंगल का आधार विरूपित,
तमस पार की कथा अबूझ।
'सत्यवीर' निर्जाल, सहज पत,
चिर विश्रान्ति गढ़े यह सूझ।
नियम न कोई चले क्रिया में, कौन सयाना? कौन अमीत?
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक- 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' }
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