¤ ज्ञान नाम की वस्तु नहीं ¤
आरोपित चर्चाऐं हारें, रुको अभी तुम अस्तु, यहीं।
अपना सच स्वीकार लिया, तो ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।१।।
अपना शोधन कर कुछ देखो,
आत्म-ज्ञान पर करो विचार।
ज्ञेय पृथक हो जब ज्ञाता से,
तभी ज्ञान घटता अविकार।
तुम अद्वैत सदा से, जागो! तुम अवस्तु अविकार सही।
अपना सच स्वीकार लिया तो, ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।२।।
श्वाँस एक अनुपम मोती है,
मूल अक्ष मंथनहित अविरल।
रत्नराशि का उत्स स्वास है,
पल में खिले सनातन उत्पल।
अवपीड़ित मन के विलोप से, जब-जब वस्तु अवस्तु गही।
अपना सच स्वीकार लिया, तो ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।३।।
मन के पास न सत्य कहीं कुछ,
केवल 'सत्य' शब्द का ख्याल।
शब्द 'ज्ञान' से पृथक ज्ञान है,
उस अशब्द को गहे मराल
कल्पित चिन्तन पर कब? कह दो! किञ्चित ज्ञान-बयार बही।
अपना सच स्वीकार लिया तो, ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।४।।
तुम कहते हो 'जो ज्ञानी है,
वह होगा चरित्र में सिद्ध'।
तर्कयुक्त चारित्रिकता तो,
आरोपित है, मैं से बिद्ध।
'सत्यवीर' उस मरे ज्ञान में, सहजस्फूर्तिवत् शील रही।
अपना सच स्वीकार लिया, तो ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर {पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
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