* भ्रमर मरे, अमर सरे *
फूल खिल गया, कि रहा शेष कुंभ, मधु भरे।
स्नात-तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।१।।
टूट रही मूर्च्छा, कि
जागृति अनुभूत यहाँ।
हो रहा प्रवेश सूक्ष्म-
तन में, अब नींद कहाँ?
लिप्ति से अलिप्ति पृथक, भूतविद्ध वस्त्र झरे।
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।२।।
मरघट पर संज्ञाऐं,
शून्य रहीं, क्या गाऐं?
वेदना असार बनी,
पंखुड़ियाँ मुस्काऐं।
हैं प्रशून्य संकल्प, गलित जगत अमति करे।
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।३।।
अग्नि लगी, ताप कहाँ?
स्थगित है बीज-वपन।
परिचय क्या प्रियतम का,
गर्भ कहाँ ? कहाँ सृजन?
पारस की गरिमा में, शेष कहाँ विटप हरे?
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।४।।
"सत्यवीर" आघोषित,
जीवन की अनुभाषा।
मस्ती नित हो अखण्ड,
तब हो किसकी आशा?
नाद उठे अंतर से, जीवभाव जब मरे।
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
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