* पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?*
एक पुरुष की रहनी अनगढ़, खुद से कभी विछोह कहाँ ?
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ, अवरोह कहाँ ?।।१।।
शिशु की दोषपरे की मति में,
जग का व्यर्थ नाद भर जाता।
जीत-हार का द्वन्द्व अघोषित,
जीवन में जाने कब आता?
सदा रही निर्लिप्त आत्मा, कैसे करती रुदन यहाँ?
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।२।।
एक तत्व की व्याप्ति सभी में,
स्थिति की लयता भी एक।
किन्तु प्रतिष्ठा-बोध अधूरा,
स्यात् भरे उर में अविवेक।
जग-समाज में ऋतहित प्रचलित, चढ़ना-गिरना बोझ महा।
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।३।।
प्रायश्चित कैसा, जब घटना
प्रकृत रूप में ही हो जाये ?
यदि न किया कुछ निराकरण,
औ मन भी जब हठ से दब जाये।
है बुद्धत्व परे इस मन के, मन का नहीं प्रवेश वहाँ।
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।४।।
'कर न सके स्पर्श कालिमा,
है आत्मा नित अविकारी'।
अपने में जिस पल आओगे,
होगे निज पर बलिहारी।
बुद्धि खेल करती रहती है, 'सत्यवीर' है मोह कहाँ ?
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}
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