Friday, October 7, 2016

* अब नींद कहां? *

* अब नींद कहाँ? *

आवर्त्तन का संजाल कटा, प्रतिभेद अपार, असार यहाँ।
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं,अब नींद कहाँ?।।१।।

निर्झरणी थी इक बिन्दु, जहाँ-
जागृति का बीज- बपन प्रगटा।
पावस की दीर्घ अनुश्रुति में,
चंचलता का आवेग कटा।
विश्वास मरा; आवेश भरा, कैसा उत्ताप- विमोह यहाँ?
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं अब नींद कहाँ?।।२।।

कुछ भ्रम न रहा; मेरे उर में,
अपनी आँखों से सच देखा।
बस एक विधा, अपने से चल-
पावो निज को, इक पत देखा।
भिक्षुक तो, था सम्राट स्वयं, आह्लाद अगाध- प्रतीति यहाँ।
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं, अब नींद कहाँ?।।३।।

प्रतिदान मिले किसको? औ क्यों?
यह सहज जागरण का घट है।
तू ढ़ूँढ़ रहा कब से? किसको?
तू ही, वह बिषपायी नट है।
कैसा उपक्रम? निर्धार प्रकृति, किस हेतु अबद्ध मरे अब, हाँ?
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं, अब नींद कहाँ?।।४।।

हे सत्यवीर! निर्ब्याज- लब्धि,
बैकुण्ठ लहे अविराम, अजर।
पीड़ा पर ध्यान धरो, देखो!
क्या कल्प और क्या प्रकृत- प्रखर?
अनजान निनाद बना साथी, सब भेद खुले, अब खेद कहाँ?
नयनों में अब मस्ती मचली, श्रम- स्वेद नहीं, अब नींद कहाँ?।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

Tuesday, September 6, 2016

** सारे भेद अभेद रहे अब **

हठ प्रसंग पर ध्यान नहीं था, हुआ समर्पित हठी प्रयास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।१।।

सन्निपात उद्गार फूटते,
किन्तु तृषा कब हो परिभाषित?
स्वप्न श्रृंखला भंग हुई,
पर मानस में कुछ रिक्ति अभाषित।
आरोपित सिद्धांत मरेंगे, स्यात् मुखर हो सच्चित् रास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।२।।

ऋद्धि-सिद्धियाँ बरस पड़ीं अब,
निरसित रहे सभी अभियोग।
एक नव्य अनुभूति मुखर हो,
करे हृदय में नये प्रयोग।
इस गति पर मन्मथ आक्रोशित, सहज वमित हो गरलविलास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।३।।

लो! अब सावधान है मानस,
टेक रचे मादक संन्यास।
इस गति पर वैकुण्ठ पुकारे,
लहरें करें वक्र उपहास।
'सत्यवीर' इस प्रतिभिज्ञा में, वीतरागतामय आकाश।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।४।।

कुछ अज्ञात उभर कर आता,
विग्रहता है शुरू इधर।
इस विगलन का फल क्या होगा?
प्रश्न लिए उभरे कुछ स्वर।
सहज प्रगति सब आग्रह हरती, मलयानिल सा हो आभास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।५।।

किस अनुलेखन पर इतराऊँ,
बली भाव सब हुऐ अपरिचित।
अगणित जन्म, अकाट्य अर्गला,
सभी हो गए जिस पल निरसित।
शास्त्र शून्य, अनुभूति यही है, कर्माकर्म विलुप्त सहास।
सारे भेद अभेद रहे अब, स्वतः रहस्यों का हो व्यास।।६।।

अशोक सिंह सत्यवीर
[पुस्तक - "पथ को मोड़ देख निज पिय को "]

Saturday, August 27, 2016

* काल परे की गति पाओ *

¤ काल परे की गति पाओ ¤

अजर- वाह पर दृष्टि डाल इक, ओ अपार! अब जग जाओ।
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।१।।

लो! आती आवाज सुनो यह,
जिसमें छुपा अमर का गीत।
नित्य पुकार चली आती है,
आकुल रहा आज भी मीत।

आवर्तन पर दृष्टि सुप्त है, किन्तु असीम कहे," आओ!"
फेरों में कब से उलझे! अब काल परे की गति पाओ।।२।।

निस्पृहता में मृत्यु नहीं है,
निर्भयता स्वाभाविक राग।
प्राप्ति मोहहत्‌ अविरत्‌, पुष्पित,
मुस्काता अविराम विराग।

नर्तन पर चिन्ता नित मरती, कब कहती कुछ कर लाओ?
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।३।।

जग में जो कर्तव्य हेतु गति,
कैसे? कहाँ हृदय को सींचे?
भर लो अपने प्राण प्रेम से,
अनुशासन तब आये पीछे।
स्वतंत्रता में ही अनुशासन, तंत्रमुक्त होकर अब गाओ।
फेरों में कब से उलझे? अब काल परे की गति पाओ।।४।।

तंत्र और जग की मर्यादा,
काल बनी विकसित प्राणों की।
भावों में नित रहो प्रमाणिक,
परख करो चलते बाणों की।
'सत्यवीर' आचरण अधूरे, एक जागरण ही को ध्याओ।
फेरों में कब से उलझे?, अब काल परे की गति पाओ।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

Wednesday, August 24, 2016

* ठहरना तो तब घटे *

* ठहरना तो तब घटे *

अनिग्रह से ग्रसित मानस, टेक इक पर जब मिटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।१।।

सत्य क्या है? झूठ क्या है?
सत- असत के पार जाकर।
क्या विरूपित? रूपमय क्या?
उस अकथ का सार पाकर।

त्यागकर चिन्तन- विधा को, सूत्र- पथ का पट हटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।२।।

खोज का अभियान रचकर,
अगर, कुछ ले लिया साधन।
दूर जाकर क्या मिलेगा?
भवन में रह, ओ! महामन।

तू स्वयं गन्तव्य अपना, जान! यात्रा जब रुके।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।३।।

है वृथा वह ज्ञान, जिसका-
है नहीं अनुभव स्वयं का।
है भला उससे, कि वह अज्ञान,
जो अपना स्वयं का।

जब स्वयं को जान जाओ, सहज ही यह जगत सिमटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।४।।

दो घड़ी का ध्यान झूठा,
शेष जब सम्भ्रम लिए सुर।
कुशलता तब ही सहज की,
हर घड़ी प्रीतम हँसे उर।

रात- दिन, हर पल सहज हो, ध्यान जब ऐसा घटे।
तुम न जानो एक पल में, ठहरना तो तब घटे।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'{ पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

*आप स्वयं में होकर लय*

* आप स्वयं में होकर लय *

शान्त स्व-गति पर बलि- बलि जाऊँ, कैसे घटता यह विस्मय?
इसका भेद खुले कब? समझो, आप स्वयं में होकर लय।।१।।

यात्रा करते युग कब बीता,
कितने धारण किये शरीर!
कितने साधन पर चल देखा!
क्या कायर? क्या सच्चा वीर?

अनजाने में तीर लगा कब? जली ज्योति बन कब निर्भय?
इसका भेद खुले कब? समझो! आप स्वयं में होकर लय।।२।।

योग अनेक जगत में प्रचलित,
जागृति की परिघटना एक।
ज्ञान- भक्ति पर प्रश्न अधूरे,
घटित जागरण का घट एक।

भेद आचरण तक सीमित है, आगे शब्दगलित अक्षय।
इसका भेद खुले कब? समझो! आप स्वयं में होकर लय।।३।।

प्रचलित तथ्य 'प्रेम कंटक- पथ,
सार वस्तु से एक करे'।
किन्तु इसे भी कच्चा मानो,
मर्म न जब तक नेक सरे।

'चिन्तन- कर्म' बताता, अब भी, पूरा नहीं हुआ आशय।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।४।।

धर्म- भीरुता, गुरुता- लघुता,
समता की व्याख्या नि:सार।
किसकी रक्षाहित सन्नध मन?,
अब भी मर न सका व्यापार।

"व्याख्या पर वाणी रुक जाये, जब अखण्ड पर मरे हृदय"।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।५।।

स्पर्धा अब भी जारी है,
आभूषण पर चित्त रुका।
पार- शील का तल क्या जानो!
माया पर ही शोध झुका।

तुम क्या हो? भटके किस तट? अब ओ सम्राट! समझ आशय।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।६।।

'सत्यवीर' "आह्लाद सनातन,
कर्म- कथा कृत्रिम अभ्यास"।
नाटक रचकर सूत्रधार ने,
मोहबद्ध हो किया विलास।

गर्हित- पीव लिए तू डोले, झूठी नीति, कि झूठा नय।
इसका भेद खुले कब? समझो!, आप स्वयं में होकर लय।।७।।

स्रोत अमृत का, रूप- पार छवि,
किस पत पर नित रुदन करे?
कोटिहीन, प्रसरित कण- कण पर,
अब तो उर को अमन करे।

ओ! अबद्ध, ओ! मृत्युपार,निष्काम, विमुक्त, सनातन वय।
इसका भेद खुले कब? समझो! आप स्वयं में होकर लय।।८।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक- 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

* किस भाषा में व्यक्त करें? *

* किस भाषा में व्यक्त करें? *

अवगुण्ठित जिह्वा रुक जाये, कैसे कुछ अभिव्यक्त करें?
बातें उतर नहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।१।।

बाह्य-दृष्टि में कल्पकथा है,
किन्तु अगम सच का अभिलेखन।
स्यात्‌ पहुँच जाओ उस तल पर,
शून्य भाव पर कैसा मन?

थोड़ी सी वह दिव्य झलक, इस मन को भी अनुरक्त करे।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें।।२।।

पद पाकर, पद रहित बन गये,
आत्मपथिक को क्या पाथेय!
आकुलता आह्लाद बन गयी,
स्वत: घटित, किसको दें श्रेय?

गहन गुफा की ज्योतिर्मयता, तम से चिर प्रतिरक्त करे।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।३।।

नादशून्यता, क्या निनादमय!
विश्व- विधा का सब परिमापित।
श्लाघा का व्यामोह शून्य है,
व्यर्थ हुआ पत महिमामण्डित।

सुख- दु:ख का आह्वान उपेक्षित, मुदिता की विज्ञप्ति सरे।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।४।।

यदा- कदाचित्‌ इन आँखों में,
अनुभव का गाम्भीर्य उतरता
मस्ती का लालित्य अनूठा,
परखो जानो अब क्या सरता?

किस लिपि को उपधान बनाकर, अनुभव सरणि विभक्ति हरें।
बातें उतर रहीं मानस में, किस भाषा में व्यक्त करें?।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक- पथ को मोड़ देख निज पिय को}

Friday, August 12, 2016

* पारस में अनुराग बढ़े *


अभिलाषा ने अभिलाषाऐं मारीं, मार अचेत पडे़।

धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।१।।

सूत्रधार से सूत्र मिल गया,
मोती मुस्काऐ सायास।
गहे सूत्र स्तम्भ चढ़े कपि,
अभय पा रहा अब आकाश।

श्रुतियाँ कुछ सार्थक हो उभरीं, गर्दभता हिय की बिछुड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।२।।

छठें दिवस पूतना पधारी,
गरलग्रंथि पयरूप दिखी।
सद्गुरु की आकाश कृपा ने,
विष की गति अनुकूल लिखी।

मरी पूतना, कुल मुस्काया, नभ में शब्द अशब्द जड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुभूति बढ़े।।३।।

गुहा अपरिमित खींच रही अब,
कली पुनः अब बंद हुई।
इस गति का कुछ अंत कहें क्या?
स्वरगति कुछ-कुछ मंद हुई।

शून्य कृष्णिका शब्द अपहरण, कुसुम थाल ले देव खड़े।
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।४।।

"सत्यवीर” विधियाँ सब छूटें,
स्वर्ण जगत की सूझ मिले।
इधर सृजन बाधित हो वरवश,
उधर बोध के पुष्प खिलें।

अनुमिति का अभिधान भंग हैं, असुर-देव अब कहाँ लड़ें?
धन ही धन का हरण करे अब, पारस में अनुराग बढ़े।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर
{पुस्तक- “पथ को मोड़ देख निज पिय को”}

Tuesday, June 7, 2016

*नाच उठा हृदय आज*


* नाच उठा हृदय आज *

बन्धन के खुलने की आहट पर बजे बाज।
नाच उठी आत्मा,नाच उठा हृदय आज।।१।।

आघोषित, जीवन में,
जीवन की परिभाषा।
प्रतिपल वैकुंठ घटित,
अब हो किसकी आशा?

ऐसे में शान्त हुआ, भावों का चिर समाज।।२।।

जनरव से उदासीन,
निर्जन में छिड़े तार।
जाने कब मृत्युंजयती,
उतरी ले समाचार?

अब हैं नि:सार यहाँ, आरोपित सभी साज।।३।।

पवनपुत्र ला सकते,
संजीवनि याद करो।
मूर्छा उपचारित हो,
अब तो संधान करो।

'सत्यवीर' प्रश्न उठे, उतरेगा तब जहाज।।४।।

भुक्ति-मुक्ति अर्थहीन,
जिस पल गति प्रगति करे।
दृष्टिसाध्य मुक्ता पर,
मुदिता ही विमति हरे।

विषपायी शिव से ले कौन? किस तरह व्याज?।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
06/10/2015

* ज्ञान नाम की वस्तु नहीं *

¤ ज्ञान नाम की वस्तु नहीं ¤

आरोपित चर्चाऐं हारें, रुको अभी तुम अस्तु, यहीं।
अपना सच स्वीकार लिया, तो ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।१।।

अपना शोधन कर कुछ देखो,
आत्म-ज्ञान पर करो विचार।
ज्ञेय पृथक हो जब ज्ञाता से,
तभी ज्ञान घटता अविकार।

तुम अद्वैत सदा से, जागो! तुम अवस्तु अविकार सही।
अपना सच स्वीकार लिया तो, ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।२।।

श्वाँस एक अनुपम मोती है,
मूल अक्ष मंथनहित अविरल।
रत्नराशि का उत्स स्वास है,
पल में खिले सनातन उत्पल।

अवपीड़ित मन के विलोप से, जब-जब वस्तु अवस्तु गही।
अपना सच स्वीकार लिया, तो ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।३।।

मन के पास न सत्य कहीं कुछ,
केवल 'सत्य' शब्द का ख्याल।
शब्द 'ज्ञान' से पृथक ज्ञान है,
उस अशब्द को गहे मराल
कल्पित चिन्तन पर कब? कह दो! किञ्चित ज्ञान-बयार बही।
अपना सच स्वीकार लिया तो, ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।४।।

तुम कहते हो 'जो ज्ञानी है,
वह होगा चरित्र में सिद्ध'।
तर्कयुक्त चारित्रिकता तो,
आरोपित है, मैं से बिद्ध।

'सत्यवीर' उस मरे ज्ञान में, सहजस्फूर्तिवत्‌ शील रही।
अपना सच स्वीकार लिया, तो ज्ञान नाम की वस्तु नहीं।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर {पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}

* पतन कहाँ ?अवरोह कहाँ? *

* पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?*

एक पुरुष की रहनी अनगढ़, खुद से कभी विछोह कहाँ ?
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ, अवरोह कहाँ ?।।१।।

शिशु की दोषपरे की मति में,
जग का व्यर्थ नाद भर जाता।
जीत-हार का द्वन्द्व अघोषित,
जीवन में जाने कब आता?

सदा रही निर्लिप्त आत्मा, कैसे करती रुदन यहाँ?
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।२।।

एक तत्व की व्याप्ति सभी में,
स्थिति की लयता भी एक।
किन्तु प्रतिष्ठा-बोध अधूरा,
स्यात्‌ भरे उर में अविवेक।

जग-समाज में ऋतहित प्रचलित, चढ़ना-गिरना बोझ महा।
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।३।।

प्रायश्चित कैसा, जब घटना
प्रकृत रूप में ही हो जाये ?
यदि न किया कुछ निराकरण,
औ मन भी जब हठ से दब जाये।

है बुद्धत्व परे इस मन के, मन का नहीं प्रवेश वहाँ।
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।४।।

'कर न सके स्पर्श कालिमा,
है आत्मा नित अविकारी'।
अपने में जिस पल आओगे,
होगे निज पर बलिहारी।

बुद्धि खेल करती रहती है, 'सत्यवीर' है मोह कहाँ ?
बाहर के व्यवहार प्रसीमित, पतन कहाँ ? अवरोह कहाँ ?।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}

* सागर का आह्लाद स्थगित *

* सागर का आह्लाद स्थगित *

नित्य तृप्त, नित पार विहग, अब देख स्वयं को हुआ अचम्भित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।१।।

भोजन हित उद्यम क्या करना,
तृप्तिस्रोत पर खोज स्खलित?
कभी बुभुक्षा भी थी, यह भी
सिद्ध हुआ भ्रम, थाह समर्पित।
नृत्यहीनता शून्य नृत्यमय, बरसे एकराग में अब नित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।२।।

अपरावर्त इन्द्रधनु नभ में,
अविकारी का दे आघोष।
आज बदलते इस मौसम पर,
उपज रहा कुछ नव सन्तोष।
क्रीड़ा पर ब्रीड़ा अवगुण्ठित, और शेष अवसाद समर्पित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।३।।

ऋद्धि-सिद्धि औ निधि पर भारी,
इक पल की यह भाव-दशा।
अष्ट- प्रहर पशु करे जुगाली,
पर मानस पर मन विहँसा।
मरु प्रदेश में अमियधार बन, बरसे आतपसार अमित।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।४।।

'सत्यवीर' अस्पृष्ट, अनाविल,
अनाघ्रात, अब भी कस्तूरी।
बात समझ में आ जायेगी,
जिस पल, दृष्टि पड़ेगी पूरी।
शोकपार जाने को, उद्यत शिशु के मुख में उतरे अमृत।
किस हित हो उद्योग, मौनमय सागर का आह्लाद स्थगित?।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक- 'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}

* कैसा प्रतिवेदन विपरीत! *

* कैसा प्रतिवेदन विपरीत! *

आस्था मरी सभी शास्त्रों पर, किन्तु प्रगाढ़ रही अनुप्रीत।
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।१।।

अनुभव पर व्याख्याऐं हारीं,
दया, धर्म की कथा मिटी।
क्या व्यापार कि क्षुद्र अघोषित!
यश-कंचन पर गति सिमटी।

सहज दिव्यता से अनुप्राणित उर में नहीं हार, वा जीत।
किस सुजान पर प्रकट करूँ मैं? कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।२।।

विचलन में चैतन्य प्रमाणित,
गतिमय लगे, किन्तु अभिशान्त।
लीलाधर की लीला मुखरित,
माया कहें इसे कुछ भ्रान्त।

मुखविहीन कब बने प्रलापी? कब आये गर्मी, कब शीत?
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।३।।

मृत्युभेद पर बिखरी बातें,
किन्तु जीव-अमरत्व प्रसिद्ध।
पर इक जन्म- रहस्य अनावृत,
मुक्त कर सके आत्मा, बिद्ध।

प्रकट वेदना में मुखरित नित, फूटे कब निष्काम अगीत?
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!।।४।।

मंगल का आधार विरूपित,
तमस पार की कथा अबूझ।
'सत्यवीर' निर्जाल, सहज पत,
चिर विश्रान्ति गढ़े यह सूझ।

नियम न कोई चले क्रिया में, कौन सयाना? कौन अमीत?
किस सुजान पर प्रकट करूँ? यह कैसा प्रतिवेदन विपरीत!5॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक- 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' }

* उतरी उत्सव की धारा *

¤ उतरी उत्सव की धारा ¤

उलट गयी नौका, पर डूबी संग- संग सरिता की धारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।१।।

यष्टिपात्‌ जब हुआ, कि जानो-
यात्रा का अवसान हुआ।
सूत्रपात्‌ जब घटे, कि समझो-
मोती का सन्धान हुआ।

सुनो आ रही ध्वनि, अनहदमय लगता अब आलम सारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।२।।

सन्निपात आह्वान प्रबल है,
चेतन पर अभ्यास घटा।
उड्‌गन मचल गये बालकवत्‌,
सूरज का दर्शन सिमटा।

वन की हिंस्रकता में टूटी, अपने सुर की चिर कारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।३।।

आरोपित अभिधान व्यर्थ अब,
निरसित रहे सभी अभियोग।
एक बिन्दु में सभी उपकरण,
बाह्य जगत क्या उपयोग?

अशित हो, कि शित यह तुम जानो, हम पर आरोपण हारा।
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।४।।

'सत्यवीर' सम्मेलित चेतन,
किन्तु रहे निर्लिप्त अहो!
साधन पर चलते सब, चाहे-
ज्ञात रहे या ज्ञात न हो।

कैसा संकट इस चेतन पर? कैसा सागर अब खारा?
क्या आह्लाद! कहूँ मैं कैसे? उतरी उत्सव की धारा।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर' {पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' }

* आतप का संसार मधुर *

* आतप का संसार मधुर *

प्रीतम की मधुरिम प्रतीति पर, परिवर्तित सब मोहक सुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।१।।

रण में वरवश लिप्त हो गये,
फल पर अब कैसा आक्षेप?
युद्ध-विरति हित तत्पर हो,
पर नहीं नियन्त्रित कुछ विक्षेप।

द्रष्टा की तटस्थ आँखों में, रह-रह ज्योति जले स्फुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।२।।

प्रगलनहित उत्तप्ति जरूरी,
स्वर्ण-शोध तब फल पाये।
प्रीतम के दर्शनहित तप पर,
आशाअमिय छलक जाये।

क्या आनन्द चला आता है! हृदय अनवरत्‌ है आतुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।३।।

अनुभवरहित धर्म की व्याख्या,
करे विदूषकवत्‌ व्यवहार।
शीलहीन मानस आह्लादित,
क्या तुरीयमय नित व्यापार!

नटवर विष पर करे गर्जना, मुस्काये समत्वमय उर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।४।।

मौसम की भीषण मरुता में,
छूट रही मोहक मुस्कान।
यजन स्वाँस का स्वत: हो रहा,
रहें नियन्त्रित प्राणापान।

'सत्यवीर' जो यह गति पावे, सच में उसको कहो चतुर।
अब तो नित्य प्रतीत हो रहा, आतप का संसार मधुर।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर

{पुस्तक:'पथ को मोड़ देख निज पिय को'}

** सनातन छन्द कि नव उद्गार **

* सनातन छन्द कि नव उद्‌गार *

कर्म का मर्म, साधना-कर्म,
श्वास का धर्म, श्वास रुक जाय।
करेगा कौन? रहो अब मौन,
मिले जब भौन, अमन उर छाय॥1॥

मिटी जब आस, लखो विश्वास,
नहीं परिहास, कि अवसर जान।
मोद की गोद, असत्य विनोद,
सहज यह शोध, रुचिर पहचान॥2॥

नृत्य घट बीच, कि लो उर सींच,
पाद कुछ भींच, कि हो अवतार।
अहा! यह गंध, कि कितनी मंद?
सनातन छन्द, कि नव उद्‌गार॥3॥

मिटा मन आज, बजे उर साज,
कि कैसी लाज?, फूटते गीत।
सुनो! दे ध्यान, मधुर आह्वान,
अमर का गान, मिला अब मीत॥4॥

मिटे जब भाव, विलुप्त अभाव,
नियम की नाव, हीन आभार।
शीलहत हंस, मर गया कंश,
कृष्ण का वंश, हुआ अब पार॥5॥

रचयिता: अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

आत्मज्ञान पर करो विचार

* आत्म-ज्ञान पर करें विचार *

यत्नपूत गति की अभिलाषा, हो उपलब्ध अखण्ड-अपार।
इकलौते तल पर अर्पित हो, आत्म-ज्ञान पर करो विचार।।१।।

पूर्ण शुद्ध स्थिति कहलाती,
'आत्म-ज्ञान' की दशा अमान।
उसे ज्ञान ही कह सकते हो,
'आत्मा' शब्द कहे अभिमान।

जहाँ अहंता की ध्वनि गुंजित, वहाँ कहाँ आत्मा अविकार?
इकलौते तल पर अर्पित हो, आत्म-ज्ञान पर करो विचार।।२।।

स्वत्व स्वयं ही विगलित होता,
जब अविकार अशेष रहे।
अनाकारता अनायास ही,
चिदाकाश में नित्य बहे।

ऐसे में व्यापार कहाँ हो, जब प्रियतम से हो अभिसार?
इकलौते तल पर अर्पित हो, आत्म-ज्ञान पर करो विचार।।३।।

जड़ता में आरोपित होकर,
चेतन की कर रहे उपेक्षा।
स्वरमयता सध गयी कहाँ तक,
समय-समय पर करो समीक्षा।

निर्गुण नहीं, अगुण को जानो, स्वतः घटेगा गुण अपहार।
इकलौते तल पर अर्पित हो, आत्म-ज्ञान पर करो विचार।।४।।

"सत्यवीर" विज्ञान स्वयँ का,
परखो, धरो हृदय में आर्जव।
स्रोत बोध का स्वतः मिलेगा,
विहँसे अकामता का उत्सव

जन्म-मृत्यु का भेद खुले कब? हंस उड़े कब पंख पसार?
इकलौते तल पर अर्पित हो, आत्म-ज्ञान पर करो विचार।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर

भ्रमर मरे अमर सरे


* भ्रमर मरे, अमर सरे *

फूल खिल गया, कि रहा शेष कुंभ, मधु भरे।
स्नात-तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।१।।

टूट रही मूर्च्छा, कि
जागृति अनुभूत यहाँ।
हो रहा प्रवेश सूक्ष्म-
तन में, अब नींद कहाँ?

लिप्ति से अलिप्ति पृथक, भूतविद्ध वस्त्र झरे।
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।२।।

मरघट पर संज्ञाऐं,
शून्य रहीं, क्या गाऐं?
वेदना असार बनी,
पंखुड़ियाँ मुस्काऐं।

हैं प्रशून्य संकल्प, गलित जगत अमति करे।
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।३।।

अग्नि लगी, ताप कहाँ?
स्थगित है बीज-वपन।
परिचय क्या प्रियतम का,
गर्भ कहाँ ? कहाँ सृजन?

पारस की गरिमा में, शेष कहाँ विटप हरे?
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।४।।

"सत्यवीर" आघोषित,
जीवन की अनुभाषा।
मस्ती नित हो अखण्ड,
तब हो किसकी आशा?

नाद उठे अंतर से, जीवभाव जब मरे।
स्नात तृप्त खग प्रफुल्ल, भ्रमर मरे, अमर सरे।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर